Friday 5 August 2011

हिजाब/पर्दा

(मुसलमान औरतों के लिये हिजाब/पर्दा)

सवाल: ‘‘इस्लाम औरतों को पर्दे में रखकर उनका अपमान क्यों करता है?

Hijab जवाब: विधर्मी मीडिया विशेष रूप से इस्लाम में स्त्रियों को लेकर समय समय पर आपत्ति और आलोचना करता रहता है। हिजाब अथवा मुसलमान स्त्रियों के वस्त्रों (बुर्का) इत्यादि को अधिकांश ग़ैर मुस्लिम इस्लामी कानून के तहत महिलाओं का ‘अधिकार हनन’ ठहराते हैं। इससे पहले कि हम इस्लाम में स्त्रियों के पर्दे पर चर्चा करें, यह अच्छा होगा कि इस्लाम के उदय से पूर्व अन्य संस्कृतियों में नारी जाति की स्थिति और स्थान पर एक नज़र डाल ली जाए। अतीत में स्त्रियों को केवल शारीरिक वासनापूर्ति का साधन समझा जाता था और उनका अपमान किया जाता था। निम्नलिखित उदाहरणों से यह तथ्य उजागर होता है कि इस्लाम के आगमन से पूर्व की संस्कृतियों और समाजों में स्त्रियों का स्थान अत्यंत नीचा था और उन्हें समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था।

बाबुल (बेबिलोन) संस्कृति में-

प्राचीन बेबिलोन संस्कृति में नारीजाति को बुरी तरह अपमानित किया गया था। उन्हें समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था। मिसाल के तौर पर यदि कोई पुरुष किसी की हत्या कर देता था तो मृत्यु दण्ड उसकी पत्नी को मिलता था।

यूनानी (ग्रीक) संस्कृति में-

प्राचीन काल में यूनानी संस्कृति को सबसे महान और श्रेष्ठ माना जाता है। इसी ‘‘श्रेष्ठ’’ सांस्कृतिक व्यवस्था में स्त्रियों को किसी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं था। प्राचीन यूनानी समाज में स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। यूनानी पौराणिक साहित्य में ‘‘पिंडौरा’’ नामक एक काल्पनिक महिला का उल्लेख मिलता है जो इस संसार में मानवजाति की समस्त समस्याओं और परेशानियों का प्रमुख कारण थी, यूनानियों के अनुसार नारी जाति मनुष्यता से नीचे की प्राणी थी और उसका स्थान पुरूषों की अपेक्षा तुच्छतम था, यद्यपि यूनानी संस्कृति में स्त्रियों के शील और लाज का बहुत महत्व था तथा उनका सम्मान भी किया जाता था, परन्तु बाद के युग में यूनानियों ने पुरूषों के अहंकार और वासना द्वारा अपने समाज में स्त्रियों की जो दुर्दशा की वह यूनानी संस्कृति के इतिहास में देखी जा सकती है। पूरे यूनानी समाज में देह व्यापार समान्य बात होकर रह गई थी।



रोमन संस्कृति में-

जब रोमन संस्कृति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तो वहाँ पुरूषों को यहाँ तक स्वतंत्रता प्राप्त थी कि पत्नियों की हत्या तक करने का अधिकार था। देह व्यापार और व्यभिचार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था।

प्राचीन मिस्री संस्कृति में-

मिस्र की प्राचीन संस्कृति को विश्व की आदिम संस्कृतियों में सबसे उन्नत संस्कृति माना जाता है। वहाँ स्त्रियों को शैतान का प्रतीक माना जाता था।

इस्लाम से पूर्व अरब में-

अरब में इस्लाम के प्रकाशोदय से पूर्व स्त्रियों को अत्यंत हेय और तिरस्कृत समझा जाता था। आम तौर पर अरब समाज में यह कुप्रथा प्रचलित थी कि यदि किसी के घर कन्या का जन्म होता तो उसे जीवित दफ़न कर दिया जाता था। इस्लाम के आगमन से पूर्व अरब संस्कृति अनेकों प्रकार की बुराइयों से बुरी तरह दूषित हो चुकी थी।

इस्लाम की रौशनी-

इस्लाम ने नारी जाती को समाज में ऊँचा स्थान दिया, इस्लाम ने स्त्रियों को पुरूषों के समान अधिकार प्रदान किये और मुसलमानों को उनकी रक्षा करने का निर्देश दिया है। इस्लाम ने आज से 1400 वर्ष पूर्व स्त्रियों को उनके उचित अधिकारों के निर्धारण का क्रांतिकारी कष्दम उठाया जो विश्व के सांकृतिक और समाजिक इतिहास की सर्वप्रथम घटना है। इस्लाम ने जो श्रेष्ठ स्थान स्त्रियों को दिया है उसके लिये मुसलमान स्त्रियों से अपेक्षा भी करता है कि वे इन अधिकारों की सुरक्षा भी करेंगी।


पुरूषों के लिए हिजाब (पर्दा)

आम तौर से लोग स्त्रियों के हिजाब की बात करते हैं परन्तु पवित्र क़ुरआन में स्त्रियों के हिजाब से पहले पुरूषों के लिये हिजाब की चर्चा की गई है। (हिजाब शब्द का अर्थ है शर्म, लज्जा, आड़, पर्दा, इसका अभिप्राय केवल स्त्रियों के चेहरे अथवा शरीर ढांकने वाले वस्त्र, चादर अथवा बुरका इत्यादि से ही नहीं है।)

पवित्र क़ुरआन की सूरह ‘अन्-नूर’ में पुरूषों के हिजाब की इस प्रकार चर्चा की गई हैः

‘‘हे नबी! ईमान रखने वालों (मुसलमानों) से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों की रक्षा करें। यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीका है, जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 24:30)

इस्लामी शिक्षा में प्रत्येक मुसलमान को निर्देश दिया गया है कि जब कोई पुरूष किसी स्त्री को देख ले तो संभवतः उसके मन में किसी प्रकार का बुरा विचार आ जाए अतः उसे चाहिए कि वह तुरन्त नज़रें नीची कर ले।

स्त्रियों के लिए हिजाब

पवित्र क़ुरआन में सूरह ‘अन्-नूर’ में आदेश दिया गया हैः

‘‘हे नबी! मोमिन औरतों से कह दो, अपनी नज़रें बचा कर रखें और अपनी शर्मगाहों की सुरक्षा करें, और अपना बनाव-श्रंगार न दिखाएं, सिवाय इसके कि वह स्वतः प्रकट हो जाए और अपने वक्ष पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें, वे अपना बनाव-श्रंगार न दिखांए, परन्तु उन लोगों के सामने पति, पिता, पतियों के पिता, पुत्र…।’’ (पवित्र क़ुरआन, 24:31)


हिजाब की 6 कसौटियाँ

पवित्र क़ुरआनके अनुसार हिजाब के लिए 6 बुनियादी कसौटियाँ अथवा शर्तें लागू की गई हैं।

1. सीमाएँ (Extent):प्रथम कसोटी तो यह है कि शरीर का कितना भाग (अनिवार्य) ढका होना चाहिए। पुरूषों और स्त्रियों के लिये यह स्थिति भिन्न है। पुरूषों के लिए अनिवार्य है कि वे नाभी से लेकर घुटनों तक अपना शरीर ढांक कर रखें जबकि स्त्रियों के लिए चेहरे के सिवाए समस्त शरीर को और हाथों को कलाईयों तक ढांकने का आदेश है। यदि वे चाहें तो चेहरा और हाथ भी ढांक सकती हैं। कुछ उलेमा का कहना है कि हाथ और चेहरा शरीर का वह अंग है जिनको ढांकना स्त्रियों के लिये अनिवार्य है अर्थात स्त्रियों के हिजाब का हिस्सा है और यही कथन उत्तम है। शेष पाँचों शर्तें स्त्रियों और पुरूषों के लिए समान हैं।

2. धारण किए गये वस्त्र ढीले-ढाले हों, जिससे अंग प्रदर्शन न हो (मतलब यह कि कपड़े तंग, कसे हुए अथवा ‘‘फ़िटिंग’’ वाले न हों।

3. पहने हुए वस्त्र पारदर्शी न हों जिनके आर पार दिखाई देता हो।

4. पहने गए वस्त्र इतने शोख़, चटक और भड़कदार न हों जो स्त्रियों को पुरूषों और पुरूषों को स्त्रियों की ओर आकर्षित करते हों।
5. पहने गए वस्त्रों का स्त्रियों और पुरूषों से भिन्न प्रकार का होना अनिवार्य है अर्थात यदि पुरूष ने वस्त्र धारण किये हैं तो वे पुरूषों के समान ही हों, स्त्रियों के वस्त्र स्त्रियों जैसे ही हों और उन पर पुरूषों के वस्त्रों का प्रभाव न दिखाई दे। (जैसे आजकल पश्चिम की नकल में स्त्रियाँ पैंट-टीशर्ट इत्यादि धारण करती हैं। इस्लाम में इसकी सख़्त मनाही है, और मुसलमान स्त्रियों के लिए इस प्रकार के वस्त्र पहनना हराम है।

6. पहने गए वस्त्र ऐसे हों कि जिनमें ‘काफ़िरों’ की समानता न हो। अर्थात ऐसे कपड़े न पहने जाएं जिनसे (काफ़िरों के किसी समूह) की कोई विशेष पहचान सम्बद्ध हो। अथवा कपड़ों पर कुछ ऐसे प्रतीक चिन्ह बने हों जो काफ़िरों के धर्मों को चिन्हित करते हों।
हिजाब में पर्दें के अतिरिक्त कर्म और आचरण भी शामिल है

लिबास में उपरौक्त 6 शर्तों के अतिरिक्त सम्पूर्ण ‘हिजाब’ में पूरी नैतिकता, आचरण, रवैया और हिजाब करने वाले की नियत भी शामिल है। यदि कोई व्यक्ति केवल शर्तों के अनुसार वस्त्र धारण करता हे तो वह हिजाब के आदेश पर सीमित रूप से ही अमल कर रहा होगा। लिबास के हिजाब के साथ ‘आँखों का हिजाब, दिल का हिजाब, नियत और अमल का हिजाब भी आवश्यक है। इस (हिजाब) में किसी व्यक्ति का चलना, बोलना और आचरण तथा व्यवहार सभी कुछ शामिल है।


हिजाब स्त्रियों को छेड़छाड़ से बचाता है

स्त्रियों के लिये हिजाब क्यों अनिवार्य किया गया है? इसका एक कारण पवित्र क़ुरआन के सूरह ‘‘अहज़ाब’’ में इस प्रकार बताया गया हैः

‘‘हे नबी! अपनी पत्नियों और बेटियों और ईमान रखने वाले (मुसलमानों) की स्त्रियों से कह दो कि अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें, यह मुनासिब तरीका है ताकि वे पहचान ली जाएं, और न सताई जाएं। अल्लाह ग़फूर व रहीम (क्षमा करने वाला और दयावान) है। (पवित्र क़ुरआन , 33:59)

पवित्र क़ुरआन की इस आयत से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों के लिये पर्दा इस कारण अनि‍वार्य किया गया ताकि वे सम्मानित ढंग से पहचान ली जाएं और छेड़छाड़ से भी सुरक्षित रह सकें।

जुड़वाँ बहनों की मिसाल
‘‘मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं, जो समान रूप से सुन्दर भी हैं। उनमें एक ने पूर्णरूप से इस्लामी हिजाब किया हुआ है, उसका सारा शरीर (चादर अथवा बुरके से) ढका हुआ है। दूसरी जुड़वाँ बहन ने पश्चिमी वस्त्र धारण किये हुए हैं, अर्थात मिनी स्कर्ट अथवा शाटर्स इत्यादि जो पश्चिम में प्रचलित सामान्य परिधान है। अब मान लीजिए कि गली के नुक्कड़ पर कोई आवारा, लुच्चा लफ़ंगा या बदमाश बैठा है, जो आते जाते लड़कियों को छेड़ता है, ख़ास तौर पर युवा लड़कियों को। अब आप बताईए कि वह पहले किसे तंग करेगा? इस्लामी हिजाब वाली लड़की को या पश्चिमी वस्त्रों वाली लड़की को?’’

ज़ाहिर सी बात है कि उसका पहला लक्ष्य वही लड़की होगी जो पश्चिमी फै़शन के कपड़ों में घर से निकली है। इस प्रकार के आधुनिक वस्त्र पुरूषों के लिए प्रत्यक्ष निमंत्रण होते हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि पवित्र कुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि ‘‘हिजाब लड़कियों को छेड़छाड़ इत्यादि से बचाता है।’’


दुष्कर्म का दण्ड - मृत्यु
इस्लामी शरीअत के अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर किसी विवाहित स्त्री के साथ दुष्कर्म (शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो उसके लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है। बहुतों को इस ‘‘क्रूर दण्ड व्यवस्था’’ पर आश्चर्य है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि इस्लाम एक निर्दयी और क्रूर धर्म है, नऊजुबिल्लाह (ईश्वर अपनी शरण में रखे) मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरूषों से यह सादा सा प्रश्न किया कि ‘‘मान लें कि ईश्वर न करे, आपकी अपनी बहन, बेटी या माँ के साथ कोई दुष्कर्म करता है और उसे उसके अपराध का दण्ड देने के लिए आपके सामने लाया जाता है तो आप क्या करेंगे?’’ उन सभी का यह उत्तर था कि ‘‘हम उसे मार डालेंगे।’’ कुछ ने तो यहाँ तक कहा, ‘‘हम उसे यातनाएं देते रहेंगे, यहाँ तक कि वह मर जाए।’’ तब मैंने उनसे पूछा, ‘‘यदि कोई व्यक्ति आपकी माँ, बहन, बेटी की इज़्ज़त लूट ले तो आप उसकी हत्या करने को तैयार हैं, परन्तु यही दुर्घटना किसी अन्य की माँ, बहन, बेटी के साथ घटी हो तो उसके लिए मृत्युदण्ड प्रस्तावित करना क्रूरता और निर्दयता कैसे हो सकती है? यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?’’

स्त्रियों का स्तर ऊँचा करने का पश्चिमी दावा निराधार है
नारी जाति की स्वतंत्रता के विषय में पश्चिमी जगत की दावेदारी एक ऐसा आडंबर है जो स्त्री के शारीरिक उपभोग, आत्मा का हनन तथा स्त्री को प्रतिष्ठा और सम्मान से वंचित करने के लिए रचा गया है। पश्चिमी समाज का दावा है कि उसने स्त्री को प्रतिष्ठा प्रदान की है, वास्तविकता इसके विपरीत है। वहाँ स्त्री को ‘‘आज़ादी’’ के नाम पर बुरी तरह अपमानित किया गया है। उसे ‘‘मिस्ट्रेस’’ (हर प्रकार की सेवा करने वाली दासी) तथा ‘‘सोसाइटी बटरफ़्लाई’’ बनाकर वासना के पुजारियों तथा देह व्यापारियों का खिलौना बना दिया गया है। यही वे लोग हैं जो ‘‘आर्ट’’ और ‘‘कल्चर’’ के पर्दों में छिपकर अपना करोबार चमका रहे हैं।

अमरीका मे बलात्कार की दर सर्वाधिक है
संयुक्त राज्य अमरीका (U.S.A.)को विश्व का सबसे अधिक प्रगतिशील देश समझा जाता है। परन्तु यही वह महान देश है जहाँ बलात्कार की घटनाएं पूरे संसार की अपेक्षा सबसे अधिक होती हैं। एफ़.बी.आई की रिपोर्ट के अनुसार 1990 ई. में केवल अमरीका में प्रति दिन औसतन 1756 बलात्कार की घटनाएं हुईं। उसके बाद की रिपोर्टस में (वर्ष नहीं लिखा) प्रतिदिन 1900 बलात्कार काण्ड दर्ज हुए। संभवतः यह आंकड़े 1992, 1993 ई. के हों और यह भी संभव है कि इसके बाद अमरीकी पुरूष बलात्कार के बारे में और ज़्यादा ‘‘बहादुर’’ हो गए हों।

‘‘वास्तव में अमरीकी समाज में देह व्यापार को कषनूनी दर्जा हासिल है। वहाँ की वेश्याएं सरकार को विधिवत् टेक्स देती हैं। अमरीकी कानून में ‘बलात्कार’ ऐसे अपराध को कहा जाता है जिसमें शारीरिक सम्बन्ध में एक पक्ष (स्त्री अथवा पुरूष) की सहमति न हो। यही कारण है कि अमरीका में अविवाहित जोड़ों की संख्या लाखों में है जबकि स्वेच्छा से व्याभिचार अपराध नहीं माना जाता। अर्थात इस प्रकार के स्वेच्छाचार और व्यभिचार को भी बलात् दुष्कर्म की श्रेणी में लाया जाए तो केवल अमरीका में ही लाखों स्त्री-पुरूष ‘‘ज़िना’’ जैसे महापाप में संलग्न हैं।’’ (अनुवादक)

ज़रा कल्पना कीजिए कि अमरीका में इस्लामी हिजाब की पाबन्दी की जाती है जिसके अनुसार यदि किसी पुरूष की दृष्टि किसी परस्त्री पर पड़ जाए तो वह तुरंत आँखें झुका ले। प्रत्येक स्त्री पूरी तरह से इस्लामी हिजाब करके घर से निकले। फिर यह भी हो कि यदि कोई पुरूष बलात्कार का दोषी पाया जाए तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाए, मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसे हालात में अमरीका में बलात्कार की दर बढ़ेगी, सामान्य रहेगी अथवा घटेगी?


इस्लीमी शरीअत के लागू होने से बलात्कार घटेंगे
यह स्वाभाविक सी बात है कि जब इस्लामी शरीअत का कानून लागू होगा तो उसके सकारात्मक परिणाम भी शीध्र ही सामने आने लगेंगे। यदि इस्लामी कानून विश्व के किसी भाग में भी लागू हो जाए, चाहे अमरीका हो, अथवा यूरोप, मानव समाज को राहत की साँस मिलेगी। हिजाब स्त्री के सम्मान और प्रतिष्ठा को कम नहीं करता वरन् इससे तो स्त्री का सम्मान बढ़ता है। पर्दा महिलाओं की इज़्ज़त और नारित्व की सुरक्षा करता है।

‘‘हमारे देश भारत में प्रगति और ज्ञान के विकास के नाम पर समाज में फै़शन, नग्नता और स्वेच्छाचार बढ़ा है, पश्चिमी संस्कृति का प्रसार टी.वी और सिनेमा आदि के प्रभाव से जितनी नग्नता और स्वच्छन्दता बढ़ी है उससे न केवल हिन्दू समाज का संभ्रांत वर्ग बल्कि मुसलमानों का भी एक पढ़ा लिखा ख़ुशहाल तब्क़ा बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज़ादी और प्रगतिशीलता के नाम पर परंपरागत भारतीय समाज की मान्यताएं अस्त-व्यस्त हो रही हैं, अन्य अपराधों के अतिरिक्त बलात्कार की घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। चूंकि हमारे देश का दण्डविघान पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है अतः इसमें भी स्त्री-पुरूष को स्चेच्छा और आपसी सहमति से दुष्कर्म करने को दण्डनीय अपराध नहीं माना जाता, भारतीय कानून में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की सज़ा भी कुछ वर्षों की कैद से अधिक नहीं है तथा न्याय प्रक्रिया इतनी विचित्र और जटिल है कि बहुत कम अपराधियों को दण्ड मिल पाता है। इस प्रकार के अमानवीय अपराधों को मानव समाज से केवल इस्लामी कानून द्वारा ही रोका जा सकता है। इस संदर्भ में इस्लाम और मुसलमानों के कट्टर विरोधी भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवानी ने बलात्कार के अपराधियों को मृत्यु दण्ड देने का सुझाव जिस प्रकार दिया है उस से यही सन्देश मिलता है कि इस्लामी कानून क्रूरता और निर्दयता पर नहीं बल्कि स्वाभाविक न्याय पर आधारित है। यही नहीं केवल इस्लामी शरीअत के उसूल ही प्रगति के नाम पर विनाश के गर्त में गिरती जा रही मानवता को तबाह होने से बचा सकते हैं।’’

 

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बहुपत्नी प्रथा

Polygamy (बहुपत्नी प्रथा)

वाल : मुसलमानों को एक से अधिक पत्नी रखने की इजाज़त क्यूँ है?  अर्थात इस्लाम एक से अधिक विवाह की अनुमति क्यूँ देता है ?

multiple_marriagesवाब : बहु-विवाह की परिभाषा - इसका अर्थ है ऐसी व्यवस्था जिसके अ नुसार व्यक्ति की एक से अधिक पत्नी अथवा पति हों. | बहु विवाह दो प्रकार के होते है -

१)- एक पुरुष द्वारा एक से अधिक पत्नी रखना .
२)- एक स्त्री द्वारा एक से अधिक पति रखना.

इस्लाम में इस बात की इजाज़त है की एक पुरुष एक सीमा तक एक से अधिक पत्नी रख सकता है जब की स्त्री के लिए इसकी इजाज़त नहीं है की वह एक से अधिक पति रखे.
अब इस प्रश्न पर विचार करते है की इस्लाम में एक व्यक्ति को एक से अधिक पत्नी रखने की इजाज़त क्यूँ है ?

१)-  पवित्र कुरान ही संसार की धार्मिक पुस्तकों में एक मात्र पुस्तक है जो कहती है "केवल एक औरत से विवाह करो " |

संसार में कुरान ही एक ऐसी एक मात्र धार्मिक पुस्तक है जिसमे यह बात कही गई है की 'केवल एक (औरत) से विवाह करो ' | दूसरी कोई धार्मिक पुरस्तक ऐसी नहीं है जो केवल एक औरत से विवाह का निर्देश देती हो | किसी भी धार्मिक पुस्तक में हम पत्नियों की संख्या पर कोई पाबन्दी नहीं पातें चाहे 'वेद', 'रामायण', 'महाभारत', 'गीता' हो या 'तलमूद' व बाइबिल | इन पुस्तकों के अनुसार एक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार जितनी चाहे पत्नी रख  सकता है |  बाद में हिन्दू साधुओं और इसाई पादरियों ने पत्निओं की संख्या सिमित कर के केवल एक कर दी |

 

हम देखते  है की बहुत से हिन्दू धार्मिक व्यक्तियों के पास, जैसा की उनके धार्मिक पुस्तकों में वर्णन है, अनेक पत्नियाँ थीं | राम के पिता रजा दशरथ की एक से अधिक पत्नियां थीं, इसी प्रकार कृष्ण जी की अनेक पत्नियां थीं |

प्राचीन काल में ईसाइयों को उनकी इच्छा के अनुसार पत्नियाँ रखने की इजाज़त थी , क्यूँ की बिबिल पत्नियों की संख्या पर कोई सीमा नहीं लगाती | मात्र कुछ सदी पहले गिरजा ने पत्नियों की संख्या कम करके एक कर दी |

यहूदी धर्म में भी बहु-विवाह की इजाज़त है | तलमूद कानून के अनुसार इब्राहीम की तीन पत्नियाँ थीं और सुलैमान की सैकड़ों पत्नियाँ थीं | बहु-विवाह का रिवाज चलता रहा और उस समय बंद हुआ जब रब्बी गर्मोश बिन यहूदा(९६० ई० से १०३० ई0 ) ने इसके खिलाफ हुक्म जरी किया | मुसलमान देशों में रहने वाले यहूदियों के पुर्तगाल समुदाय में यह रिवाज (१९५० ई०) तक प्रचलित रहा और आखिर में इस्राईल के चीफ रब्बी ने एक से अधिक पत्नी रखने पर पाबन्दी लगा दी |

polygamy
२)-
मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दू अधिक पत्नियाँ रखते हैं

सन १९७५ ई० में प्रकाशित 'इस्लाम में औरत का स्थान कमेटी' की रिपोर्ट में पृष्ठ संख्या ६६,६७ में बताया गया है की १९५१ ई० और १९६१ ई० के मध्य हिन्दुओं में बहु-विवाह ५.०६ प्रतिशत था जब की मुसलमानों में केवल ४.३१ प्रतिशत था | भारतीय कानून में केवल मुसलमानों को ही एक से अधिक पत्नी रखने की अनुमति है और गैर मुस्लिमो के लिए एक से अधिक पत्नी रखना भारत में गैर कानूनी है | इसके बावजूद हिन्दुओं के पास मुसलमानों की तुलना में अधिक पत्निय होती है | भूत काल में हिन्दुओं पर भी इसकी कोई पाबन्दी नहीं थी | कई पत्निय रखने की उन्हें अनुमति थी | ऐसा सन १९५४ ई० में हुआ जब हिन्दू विवाह कानून लागु किया गया जिसके अंतर्गत हिन्दुओं को बहु-विवाह की अनुमति नहीं रही और इसको गैर-कानूनी करार दिया गया | यह भारतीय कानून है जो हिन्दुओं पर एक से अधिक पत्नी रखने पर पाबन्दी लगाता है न की हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ |
अब आइये इसकी चर्चा करते है कि इस्लाम एक पुरुष बहु-विवाह कि अनुमति क्यूँ देता है ?

३)- पवित्र कुरान सिमित बहु-विवाह की अनुमति देता है

जैसा कि पहले बयान किया जा चूका है कि पवित्र कुरान ही एक मात्र धार्मिक पुस्तक है जो निर्देश देती है कि "केवल एक (औरत) से विवाह करो" | कुरान में है - "अपनी पसंद कि औरत से विवाह करो दो ,तीन, अथवा चार, परन्तु यदि तुम्हे भय हो कि तुम उनके मध्य सामान न्याय नहीं कर सकते तो तुम केवल एक (औरत) से विवाह करो |"  (कुरान ४:३ )
कुरान के अवतरित होने से पूर्व बहु-विवाह की कोई सीमा नहीं थी | बहुत से लोग बड़ी संख्या में पत्नियाँ रखते थे और कुछ के पास तो सैकड़ो पत्निया होती थीं | इस्लाम ने अधिक से अधिक ४ पत्नियों की सीमा निर्धारित कर दी | इस्लाम किसी व्यक्ति को दो, तीन अथवा चार औरतों से इस शर्त पर विवाह करने की इजाज़त देता है, जब वह उनके बराबर का इन्साफ करने में समर्थ हो |
कुरान के इसी अध्याय अर्थात सुरह निसा आयत १२९ में कहा गया है :
"तुम स्त्रियों(पत्नियों) के मध्य न्याय करने में कदापि समर्थ न हो गे |"            (कुरान ४:१२९)
कुरान से मालूम हुआ की बहु-विवाह कोई आदेश नहीं बल्कि एक अपवाद है | बहुत से लोगों में भ्रम है कि एक मुसलमान पुरुष के लिए एक से अधिक पत्निया रखना अनिवार्य है |

आम तौर से इस्लाम  ने किसी काम को करने अथवा न करने कि द्रिष्टि से ५ भागों में बांटा है

  • 'फ़र्ज़' अर्थात अनिवार्य |

  • 'मुस्तहब' अर्थात पसंदीदा |

  • 'मुबाह' अर्थात जिसकी अनुमति हो |

  • 'मकरूह' अर्थात घृणित, नापसंदीदा |

  • 'हराम' अर्थात निषेध |

बहु-विवाह मुहाब के अंतरगत आता है जिसकी इजाज़त(अनुमति) है, आदेश नहीं है | अर्थात यह नहीं कहा जा सकता कि एक मुसलमान जिसकी दो , तीन अथवा चार पत्नियाँ हों , वह उस मुसलमान से  अच्छा है जिसकी केवल एक पत्नी हो |



४)- औरतों की औसत आयु  पुरुषों से अधिक होती है  प्राकृतिक रूप से औरत एवं पुरुष लगभग एक ही अनुपात में जन्म लेते हैं | बच्चों की अपेक्षा बच्चियों  में रोगों से लड़ने की  क्षमता अधिक होती है  | शिशुओं के इलाज के दौरान लड़कों की मृत्यु  ज्यादा होती है | युद्ध के दौरान स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक मरते है | दुर्घटनाओं एवं रोगों में भी यही तथ्य प्रकट होता है | स्त्रियों की औसत आयु पुरुषों से अधिक होती है इसी लिए हम देखते है कि विश्व में विधवाओं की संख्या विधुरों से अधिक है |

५)- भारत में पुरुषों की आबादी औरतों से अधिक है जिसका कारन है मादा गर्भपात और भ्रूण हत्या भारत उन देशों में से है जहा औरतों की आबादी पुरुषों से कम है इसका असल कारण यह है कि भारत में कन्या भ्रूण हत्या की अधिकता है और भारत में प्रति वर्ष दस लाख मादा गर्भपात कराये जाते है | यदि इस घृणित कार्य को  रोक दिया जाये तो भारत में भी स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होगी |

६)- पुरे विश्व में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है अमेरिका में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से ७८ लाख ज्यादा है | केवल न्यूयार्क में ही उनकी संख्या पुरुषों से १० लाख बढ़ी हुई है और जहाँ पुरुषों की एक तिहाई संख्या सोडोमीज़(पुरुषमैथुन) है और पुरे अमेरिका राज्य में उनकी कुल संक्या २ करोड़ ५० लाख है | इससे प्रकट होता है कि ये लूग औरतों से विवाह के इछुक नहीं है|
ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों कि आबादी पुरुषों से ४० लाख ज्यादा है | जर्मनी में ५० लाख और रूस में ९० लाख से ज्यादा है | केवल इश्वर ही जनता है कि पुरे विश्व में स्त्रियों कि संख्या पुरुषों से कितनी अधिक है |

७)- प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक पत्नी रखने कि सीमा व्यवहारिक नहीं है यदि हर व्यक्ति एक औरत से विवाह करता है तब भी अमेरिकी राज्य में ३ करोड़ औरतें अविवाहित रह जाएँगी (यह मानते हुए कि इस  देश में सोडोमीज़ कि संख्या २.५ करोड़ है ) | इसी प्रकार ग्रेट ब्रिटेन में ४० लाख से अधिक औरतें अविवाहित रह जाएँगी | औरतों की यह संख्या ५० लाख जर्मनी में और ९० लाख रूस में होगी, जो पति पाने से वंचित रहेंगी |

यदि मन लिया जाये कि अमेरिका की उन अविवाहितों में से एक हमारी बाहें हो या आप कि बहन हो तो इस स्तिथि में सामान्तः उसके सामने केवल दो विकल्प  होंगे | एक तो यह कि वह किसी ऐसे पुरुष से विवाह कर ले जिसकी पहले से पत्नी मोजूद है | अगर वह ऐसा नहीं करती है तो उसकी पूरी आशंका होगी कि वह गलत रास्ते पर चली जाये | सभी शरीफ लूग पहले विकल्प को प्राथमिकता देना पसंद करेंगे |

पाच पश्चिमी समाज में यह रिवाज आम है कि एक व्यक्ति पत्नी तो एक रखता है और साथ साथ उसके बहुत सी औरतों से यौन संबंध होते है | जिसके कारण औरत एक असुरक्षित और अपमानित जीवन व्यतीत करती है | वाही समाज किसी व्यक्ति को एक से अधिक पत्नी के साथ स्वीकार नहीं कर सकता, जिससे औरत समाज में सम्मान और आदर के साथ एक सुरक्षित जीवन व्यतीत कर सके |

और भी अनेक कारण है जिनके चलते इस्लाम सिमित बहु-विवाह की अनुमति देता है | परन्तु मूल कारण यह है कि इस्लाम एक औरत का सम्मान और उसकी इज्ज़त बाकी रखना चाहता है |

 

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एक समय में एक से अधिक पति

Policamy (एक समय में एक से अधिक पति)

सवाल: यदि एक पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ करने की अनुमति है तो इस्लाम में स्त्री को एक समय में अधिक पति रखने की अनुमति क्यों नहीं है?

जवाब: अनेकों लोग जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं, यह पूछते हैं कि आख़िर इस्लाम मे पुरूषों के लिए ‘बहुपत्नी’ की अनुमति है जबकि स्त्रियों के लिए यह वर्जित   है, इसका बौद्धिक तर्क क्या है?….क्योंकि उनके विचार में यह स्त्री का ‘‘अधिकार’’ है जिससे उसे वंचित किया गया है आर्थात उसका अधिकार हनन किया गया है।

पहले तो मैं आदरपूर्वक यह कहूंगा कि इस्लाम का आधार न्याय और समता पर है। अल्लाह ने पुरूष और स्त्री की समान रचना की है किन्तु विभिन्न योग्यताओं के साथ और विभिन्न ज़िम्मेदारियों के निर्वाहन के लिए। स्त्री और पुरूष न केवल शारीरिक रूप से एक दूजे से भिन्न हैं वरन् मनोवैज्ञानिक रूप से भी उनमें स्पष्ट अंतर है। इसी प्रकार उनकी भूमिका और दायित्वों में भी भिन्नता है। इस्लाम में स्त्री-पुरूष (एक दूसरे के) बराबर हैं परन्तु परस्पर समरूप (Identical)नहीं है।

पवित्र क़ुरआन की पवित्र सूरह ‘‘अन्-निसा’’ की 22वीं और 24वीं आयतों में उन स्त्रियों की सूची दी गई है जिनसे मुसलमान विवाह नहीं कर सकते। 24वीं पवित्र आयत में यह भी बताया गया है कि उन स्त्रियों से भी विवाह करने की अनुमति नहीं है जो विवाहित हो।
निम्ननिखित कारणों से यह सिद्ध किया गया है कि इस्लाम में स्त्री के लिये एक समय में एक से अधिक पति रखना क्यों वर्जित किया गया है।



1. यदि किसी व्यक्ति के एक से अधिक पत्नियाँ हों तो उनसे उत्पन्न संतानों के माता-पिता की पहचान सहज और संभव है अर्थात ऐसे बच्चों के माता-पिता के विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता और समाज में उनकी प्रतिष्ठा स्थापित रहती है। इसके विपरीत यदि किसी स्त्री के एक से अधिक पति हों तो ऐसी संतानों की माता का पता तो चल जाएगा लेकिन पिता का निर्धारण कठिन होगा। इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में माता-पिता की पहचान को अत्याधिक महत्व दिया गया है।

मनोविज्ञान शास्त्रियों का कहना है कि वे बच्चे जिन्हें माता पिता का ज्ञान नहीं, विशेष रूप से जिन्हें अपने पिता का नाम न मालूम हो वे अत्याघिक मानसिक उत्पीड़न और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। आम तौर पर उनका बचपन तनावग्रस्त रहता है। यही कारण है कि वेश्याओं के बच्चों का जीवन अत्यंत दुख और पीड़ा में रहता है। ऐसी कई पतियों की पत्नी से उत्पन्न बच्चे को जब स्कूल में भर्ती कराया जाता है और उस समय जब उसकी माता से बच्चे के बाप का नाम पूछा जाता है तो उसे दो अथवा अधिक नाम बताने पड़ेंगे।

मुझे उस आधुनिक विज्ञान की जानकारी है जिसके द्वारा ‘‘जेनिटिक टेस्ट’’ या DNA जाँच से बच्चे के माता-पिता की पहचान की जा सकती है, अतः संभव है कि अतीत का यह प्रश्न वर्तमान युग में लागू न हो।

2. स्त्री की अपेक्षा पुरूष में एक से अधिक पत्नी का रूझान अधिक है।

3. सामाजिक जीवन के दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक पुरूष के लिए कई पत्नियों के होते हुए भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करना सहज होता है। यदि ऐसी स्थिति का सामना किसी स्त्री को करना पड़े अर्थात उसके कई पति हों तो उसके लिये पत्नी की ज़िम्मेदारिया कुशलता पूर्वक निभाना कदापि सम्भव नहीं होगा। अपने मासिक धर्म के चक्र में विभिन्न चरणों के दौरान एक स्त्री के व्यवहार और मनोदशा में अनेक परिवर्तन आते हैं।

4. किसी स्त्री के एक से अधिक पति होने का मतलब यह होगा कि उसके शारीरिक सहभागी (Sexual Partners)भी अधिक होंगे। अतः उसको किसी गुप्तरोग से ग्रस्त हो जाने की आशंका अधिक होगी चाहे वह समस्त पुरूष उसी एक स्त्री तक ही सीमित क्यों न हों। इसके विपरीत यदि किसी पुरूष की अनेक पत्नियाँ हों और वह अपनी सभी पत्नियों तक ही सीमित रहे तो ऐसी आशंका नहीं के बराबर है।


उपरौक्त तर्क और दलीलें केवल वह हैं जिनसे सहज में समझाया जा सकता है। निश्चय ही जब अल्लाह तआला ने स्त्री के लिए एक से

अधिक पति रखना वर्जित किया है तो इसमें मानव जाति की अच्छाई के अनेकों उद्देश्य और प्रयोजन निहित होंगे।

 

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क्या 'तलाक़' औरत पर ज़ुल्म है ?

Divorce

 Divorceप्रश्न: क्यों इस्लाम में तलाक़ का प्रावधान है जो व्यक्तिगत स्तर पर पत्नी पर, और सामाजिक स्तर पर नारी-जाति पर अत्याचार है। व्यापक क्षेत्र में यह लिंग-समानता (Gender Equality) के भी विरुद्ध है क्योंकि औरत को, तलाक़ देने का हक़ प्राप्त नहीं है; इस प्रकार, कुल मिलाकर यह नारी-अधिकार-हनन भी है।

उत्तर: इस्लाम वास्तव में एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था है। व्यक्तिगत, दाम्पत्य, पारिवारिक और सामाजिक, सारे पहलू तथा इनके वैचारिक, धार्मिक आध्यात्मिक, नैतिक, भावनात्मक तथा आर्थिक और क़ानूनी एवं न्यायिक...सारे आयाम एक दूसरे से अभाज्य रूप से संबद्ध, संलग्न और इस प्रकार अन्तर्संबंधित कि जीवन के किसी एक विशेष अंग, अंश, पक्ष या आयाम को ‘समग्रता’ (Totality) से अलग करके नहीं समझा जा सकता। उपरोक्त भ्रम या आक्षेप, ‘समग्रता’ से ‘अंश’ को पृथक (Isolate) करके देखने से पैदा होते हैं। आक्षेप का एक कारण यह भी है कि ‘कुछ तत्वों’ की नीति ही इस्लाम के प्रति दुराग्रह, घृणा, विरोध और दुष्प्रचार की है। दूसरा कारण यह भी है कि स्वयं मुस्लिम समाज में कुछ नादान व जाहिल लोग, तलाकष् के इस्लामी प्रावधान को क़ुरआन की शिक्षाओं तथा नियमों के अनुकूल इस्तेमाल नहीं करते जिससे स्त्री पर अत्याचार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके इस कुकृत्य से, वे ग़ैर-मुस्लिम लोग, जो नादान मुसलमानों की ग़लती का शिकार हो जाने वाली औरत से सहानुभूति रखते हैं, यह निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि यह ग़लती इस्लाम की है, त्रुटि इस्लामी विधान में है। और मुस्लिम समाज में पाई जाने वाले इस व्यावहारिक दोष का एक बड़ा कारक यह भी है कि हमारे देश के मुस्लिम समाज की उठान और संरचना उस ‘इस्लामी शासन व्यवस्था’ के अंतर्गत तथा उसके अधीन रहकर नहीं हो रही है (और न ही हो सकती है) जो इस्लाम के अनुयायियों के जीवन के हर क्षेत्र को पूरी व्यापक व समग्र जीवन व्यवस्था की एक पवित्र तथा न्यायपूर्ण व नैतिक लड़ी में पिरो देता है; जहां न पत्नी पर दुष्ट पति के अत्याचार की गुंजाइश रह जाती है, न उद्दंड व नाफ़रमान पत्नियों द्वारा पतियों के शोषण की गुंजाइश। (गत कई वर्षों से हमारे देश में पत्नियों के अत्याचार से पीड़ित व प्रताड़ित पतियों के संगठन काम कर रहे हैं तथा जुलाई 2009 में ऐसे संगठनों के हज़ारों सदस्यों का जमावड़ा राजधानी दिल्ली में हुआ था)।

तलाक़-अत्यंत नापसन्दीदा काम
हलाल और जायज़ (वैध) कामों में सबसे ज़्यादा नापसन्दीदा और अवांछित काम इस्लाम में तलाक़ को माना गया है। दाम्पत्य-संबंध-विच्छेद (तलाक़) को इस्लाम उस अतिशय परिस्थिति (Extreme situation) में  कार्यान्वित होने देता है जब दाम्पत्य संबंध इतने ज़्यादा ख़राब हो जाएं कि दम्पत्ति, संतान, परिवार और समाज के लिए अभिशाप बन जाएं। ऐसे में इस्लाम चाहता है कि पति व पत्नी एक-दूसरे से आज़ाद होकर अपनी पसन्द का नया जीवन शुरू कर सकें। अरबी शब्द ‘तलाक़’ में इसी ‘आज़ाद होने’ का भाव निहित है। इस्लाम इस बात को गवारा नहीं करता कि पति-पत्नी में आए दिन लड़ाई-झगड़ा मार-पीट, गाली-गलौज़ का वातावरण रहे, बच्चे ख़राब हों, उनका भविष्य नष्ट हो, पति-पत्नी एक-दूसरे की हत्या करें/कराएं या आत्महत्या कर लें, पति घर छोड़कर चला जाए या पत्नी को घर से निकाल दे, परिवार अशांति व बदनामी की आग में जलता रहे लेकिन जैसा कि हमारे भारतीय समाज की दृढ़ व व्यापक परम्परा रही है, दोनों में संबंध-विच्छेद न हो। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो तलाक़ को ‘अत्याचार’ कहने वाले लोग स्वयं, इसे पति व पत्नी के लिए, विशेषतः स्त्री के लिए ‘वरदान’ और ‘न्याय’ कहेंगे कि वह एक नरक-समान जीवन जीने पर मजबूर रहने के, और पीड़ा, प्रताड़ना, अत्याचार, घुटन, कुढ़न व अशान्ति से ग्रस्त रहने के बजाय एक नया, शान्तिमय व गौरवपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए आज़ाद हो गई। और यही विकल्प पुरुष को भी प्राप्त हो गया।

दो अतियां (Extremes)
हमारे देश में, सेक्युलर क़ानून-व्यवस्था में कुछ समय पूर्व तलाक़ का प्रावधान किए जाने से परे, मूल तथा प्राचीन भारतीय सभ्यता और धार्मिक परम्परा में तलाक़ की गुंजाइश ही नहीं है। दाम्पत्य जीवन चाहे जितना असमान्य, कुण्ठित, समस्याग्रस्त हो जाए, पति-पत्नी के संबंधों में चाहे जितनी कटुता आ जाए, दोनों के लिए दाम्पत्य-संबंध अभिशाप बनकर रह जाएं यहां तक कि एक-दूसरे के प्रति अत्याचार, अपमान, अपराध की परिस्थिति भी बन जाए, संबंध-विच्छेद किसी हाल में भी नहीं हो सकता। औरत के पास, मायके से डोली उठने के बाद, ससुराल से अरथी उठने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं रहता।
दूसरी तरफ़, पाश्चात्य सभ्यता में तलाक़ देना/लेना (कोर्ट के माध्यम से) इतना सरल और इतना अधिक प्रचलित है कि ज़रा-ज़रा सी बात पर तलाक़ हो जाती है। कच्चे धागे की तरह दाम्पत्य-संबंध टूट जाते/तोड़ दिए जाते हैं। ‘सिंगिल पैरेंट फैमिली’ का अभिशाप नन्हे-नन्हे बच्चे भी झेलते हैं और समाज भी झेलता है। पति-पत्नी दाम्पत्य जीवन की गरिमा व महत्व के प्रति संवेदनहीन (Insensitive) होते जा रहे हैं। कुछ लोग तो पति-पत्नी ऐसे बदलते हैं जैसे मकान, लिबास और कारों के मॉडल।

सन्तुलित, मध्यम-मार्ग
इस्लाम, भारतीय मूल-सभ्यता और पाश्चात्य सभ्यता की उपरोक्त दो अतियों (Extremes) के बीच एक संतुलित ‘मध्यम मार्ग’ अपनाता है। न तलाक़ को वर्जित, अबाध्य, असंभव बनाता है, न खेल-खिलवाड़ की तरह आसान। विशेषतः औरत पर, उपरोक्त दोनों अतियों में जो अत्याचार और उसका जो बहुपक्षीय शोषण होता है वही आपत्तिजनक तथा आक्षेप का पात्र है, न कि इस्लाम का, तलाक़ का प्रावधान।
इस्लाम में इस बात का प्रावधान है कि पति, अत्यंत असहनीय परिस्थिति में पत्नी को तलाक़ दे सकता है और स्त्री नियमानुसार विधिवत प्रक्रिया द्वारा पति से तलाक़ प्राप्त कर सकती है। यह प्रक्रिया विस्तार के साथ शरीअत ने निश्चित व निर्धारित कर दी है। अलबत्ता स्त्री को स्वयं तलाक़ देने का अधिकार न देने में इस्लाम ने इस तथ्य का भरपूर ख़्याल रखा है कि स्त्री अपने स्वभाव, मनोवृत्ति, मानसिकता व भावुकता में पुरुष से भिन्न बनाई गई है। उसकी भावनात्मक स्थिति इतनी नाज़ुक होती है कि वह बहुत जल्द अत्यंत भावुक हो उठती है। जिस प्रतिकूल एवं कठिन व असह्य परिस्थिति में पुरुष आत्म संयम व आत्म-नियंत्रण द्वारा तलाक़ देने से रुका रहता है, संभावना रहती है कि वैसी ही परिस्थिति में स्त्री का आत्म-बल उसकी भावुकता व क्रोध से हार जाए और वह तलाक़ दे बैठे। इसे पाश्चात्य समाज ने सही भी साबित कर दिया है। अपनी पसन्द का चैनल देखने पर आग्रह करने वाली पत्नी ने अपनी पसन्द का चैनल देखने पर आग्रह करने वाले पति से रिमोट कन्ट्रोल न पाकर गु़स्से में तलाक़ ले लिया। पति के खर्राटों से रात को नींद न आने पर परेशान और क्रोधित पत्नी ने तलाक़ ले लिया। ब्वाय-फ्रेण्ड के साथ मनोरंजन करने पर पति द्वारा एतराज़ किए जाने पर पत्नी ने भावुक व क्रोधित होकर तलाक़ ले लिया। पति की किसी बात से अत्यधिक कष्ट या उसके किसी व्यवहार से अपमानित महसूस करके या किसी घरेलू झगड़े में भावुक होकर बिना बहुत दूर तक, बहुत आगे की सोचे, (पति के द्वारा तलाक़ देने की तुलना में) पत्नी द्वारा तलाक़ दे देना अधिक संभावित होता है। इसी वजह से इस्लाम स्त्री को तलाक़ लेने का अधिकार तो देता है, तलाक़ देने का अधिकार नहीं देता। तलाक़ लेने की प्रक्रिया में इस्लामी शरीअत कुछ और लोगों को भी दोनों के बीच में डालती है और विधि के अनुसार कुछ समय तक समझाने-बुझाने (Counselling) की प्रक्रिया जारी रखने के बाद यदि विश्वास हो जाता है कि संबंध विच्छेद हो जाना ही औरत के लिए भलाई व न्याय का तक़ाज़ा है तो शरीअत उसे तलाक़ दिला कर पति से आज़ाद करा देती है। इस प्रक्रिया को शरीअत की परिभाषा में ‘ख़ुलअ़’ कहा जाता है।

talaq-in-islam

तलाक़शुदा औरत के प्रति सहानुभूति
तलाक़ पर एतराज़ करने का एक सकारात्मक कारक भी है कि लोग तलाक़शुदा औरत से सहानुभूति रखते हैं लेकिन चूंकि वे उसके बारे में इस्लाम की पारिवारिक तथा सामाजिक व्यवस्था को जानते नहीं, इसलिए समझते हैं कि ऐसी अबला औरत को कोई पूछने वाला, सहारा देने वाला नहीं है इसलिए तलाक़ उस पर साक्षात् अत्याचार, शोषण और अन्याय है। लेकिन सच्ची बात यह है कि इस्लाम उसे बेसहारा, अबला और दयनीय बनाकर नहीं छोड़ता, उसने उसके लिए कई प्रावधान, कई स्तरों पर किए हैं, जैसे:
(1) विवाह के समय ही इस्लाम, पत्नी को पति से स्त्री धन (मह्र) दिलाता है। इस धन पर उसके पति या ससुराली नातेदारों का ज़रा भी हक़ नहीं होता, वह स्वयं उसकी मालिक होती है, कठिन व प्रतिकूल परिस्थिति में (जैसे तलाक़ के बाद) यह धन उसका सहारा बनता है।
(2) विवाह के समय या दाम्पत्य जीवन में पति जो कुछ भी धन, गहने, सामग्री, सम्पत्ति पत्नी को देता है, तलाक़ होने पर उससे वापस नहीं ले सकता।
(3) तलाक़ के बाद स्त्री वापस अपने मायके की ज़िम्मेदारी में चली जाती है। वहां माता-पिता या भाई लोगों पर उसकी आजीविका तथा भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी लागू हो जाती है। वह बेसहारा नहीं रह जाती।
(4) मायके में पहुंचकर यदि तलाक़शुदा औरत दूसरा विवाह करना चाहे तो मायके वालों को न सिर्फ़ यह कि उसे इससे रोकने या पुनर्विवाह में रोड़े अटकाने का अधिकार नहीं बल्कि अनिवार्य रूप से उनका कर्तव्य है कि उसकी पसन्द का रिश्ता ढूंढ़ कर उसकी शादी कराएं और उसका नया घर बसा दें।
(5) औरत का उसके मृत माता-पिता के धन-सम्पत्ति में शरीअत ने निर्धारित हिस्सा रखा है। माता-पिता की छोड़ी हुई दौलत, मकान, जायदाद, फैक्ट्री, कारोबार, ज़मीन, कृषि-भूमि आदि में उसका हिस्सा क़ुरआन में सविस्तार निर्धारित कर दिया गया है (4:11,12,176)। इस निर्धारण को क़ुरआन ने ‘अल्लाह की सीमाएं’ (हुदूद-उल्लाह) कहा है जिसके अन्दर न रहने वालों को हमेशा नरक में जलने की घोर चेतावनी दी गई है (4:14)। इसी तरह भाइयों और कुछ अन्य रिश्तेदारों के धन-सम्पत्ति में भी उसे हिस्सा दिया गया है। तलाक़शुदा औरत पुनर्विवाह कर ले तब भी और न करे तब भी ये हिस्से पाने की अधिकारी बनाई गई है।
(6) सामान्यतः कोई कुंवारा व्यक्ति किसी तलाक़शुदा स्त्री से शादी नहीं करता। इन्सानी प्रकृति के रचयिता ईश्वर ने इसी बात का ख़्याल रखते हुए शरीअत में बहु-पत्नीत्व (Polygyny) की गुंजाइश रखी है ताकि तलाक़शुदा (और विधवा) औरतों को लोग दूसरी (या अतिविशिष्ट परिस्थितियों में तीसरी, चैथी) पत्नी बनाकर उनका सहारा बन जाएं।


इतने प्रावधानों के साये में ‘तलाक़’ औरत के लिए अत्याचार व अभिशाप नहीं बन पाता। हां मुस्लिम समाज में नादानी, जिहालत के कारण पाई जाने वाली कुछ कमियों के कारण से कुछ मामलों में तलाक़शुदा औरत को कुछ कठिनाइयां अवश्य पेश आती हैं लेकिन ख़ुदा का ख़ौफ़ (परलोक की सज़ा का डर), इस्लामी नैतिकता, परिवार और समाज का दबाव आदि कुछ ऐसे कारक हैं जो ऐसी औरत को सहारा, उपलब्ध कराते रहते हैं; दूसरी तरफ़ मुस्लिम समाज में क़ुरआन, हदीस, शरीअत और नैतिकता के हवालों से शिक्षा व चर्चा हमेशा जारी रहती है, समाज-सुधार-प्रयत्न बराबर होते रहते हैं। परिणामस्वरूप अज्ञान व जिहालत का स्तर निरंतर नीचे गिरता रहता है और तलाक़शुदा औरत की उस तथाकथित दुर्दशा की स्थिति मुस्लिम समाज में बनने नहीं पाती जिसका बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार किया जाता या जिसको एक मुद्दा बनाकर रह-रहकर इस्लाम पर आक्षेप किया जाता, मुस्लिम समाज पर ‘‘तलाक़’’ के अत्याचार व अभिशाप होने का आरोप लगाया जाता, इस्लाम के प्रति घृणा का वातावरण बनाया जाता है। या सीधे-सादे देशबंधुओं में अज्ञानवश ‘तलाक़-इस्लाम-मुस्लिम समाज’ के हवाले से ग़लतफ़हमियां पाई जाने लगती है।

 

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विरासत

INHERITANCE

प्रश्नः इस्लामी कानून के अनुसार विरासत की धन-सम्पत्ति में स्त्री का हिस्सा पुरूष की अपेक्षा आधा क्यों है?

उत्तरः MoneyBags
पवित्र क़ुरआन में विरासत की चर्चा

पवित्र क़ुरआन में धन (चल-अचल सम्पत्ति सहित) के हकष्दार उत्तराधिकारियों के बीच बंटवारे के विषय पर बहुत स्पष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन किया गया है। विरासत के सम्बन्ध में मार्गदर्शक नियम निम्न वर्णित पवित्र आयतों में बताए गए हैं:

‘‘तुम पर फ़र्ज़ (अनिवार्य कर्तव्य) किया गया है कि जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आए और अपने पीछे माल छोड़ रहा हो, माता पिता और सगे सम्बंधियों के लिए सामान्य ढंग से वसीयत करे। यह कर्तव्य है मुत्‍तकी लोगों (अल्लाह से डरने वालों) पर।’’ (पवित्र क़ुरआन,  सूरह बकरह आयत 180)

‘‘तुम में से जो लोग मृत्यु को प्राप्त हों और अपने पीछे पत्नियाँ छोड़ रहे हों, उनको चाहिए कि अपनी पत्नियों के हकष् में वसीयत कर जाएं कि एक साल तक उन्हें नान-व- नफ़क: (रोटी, कपड़ा इत्यादि) दिया जाए और वे घर से निकाली न जाएं। फिर यदि वे स्वयं ही निकल जाएं तो अपनी ज़ात (व्यक्तिगत रुप में) के मामले में सामान्य ढंग से वे जो कुछ भी करें, इसकी कोई ज़िम्मेदारी तुम पर नहीं है। अल्लाह सब पर ग़ालिब (वर्चस्व प्राप्त) सत्ताधारी हकीम (ज्ञानी) और बुद्धिमान है।’’ (सूरह अल बकरह, आयत 240)

‘‘पुरुषों के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और निकटवर्ती रिश्तेदारों ने छोड़ा हो और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और निकटवर्ती रिश्तेदारों ने छोड़ा हो। चाहे थोड़ा हो या बहुत। और यह हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुकष्र्रर है। और जब बंटवारे के अवसर पर परिवार के लोग यतीम (अनाथ) और मिस्कीन (दरिद्र, दीन-हीन) आएं तो उस माल से उन्हें भी कुछ दो और उनके साथ भलेमानुसों की सी बात करो। लोगों को इस बात का ख़याल करके डरना चाहिए कि यदि वे स्वयं अपने पीछे बेबस संतान छोड़ते तो मारते समय उन्हें अपने बच्चों के हकष् में कैसी कुछ आशंकाएं होतीं, अतः चाहिए कि वे अल्लाह से डरें और सत्यता की बात करें।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 7 से 9)



‘‘हे लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए यह हलाल नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो, और न यह हलाल है कि उन्हें तंग करके उस मेहर का कुछ हिस्सा उड़ा लेने का प्रयास करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ यदि वह कोई स्पष्ट बदचलनी करें (तो अवश्य तुम्हें तंग करने का हकष् है) उनके साथ भले तरीकष्े से ज़िन्दगी बसर करो। अगर वह तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 19)

‘‘और हमने उस तरके (छोड़ी हुई धन-सम्पत्ति) के हकष्दार मुकष्र्रर कर दिये हैं जो माता-पिता और कष्रीबी रिश्तेदार छोड़ें। अब रहे वे लोग जिनसे तुम्हारी वचनबद्धता हो तो उनका हिस्सा उन्हें दो। निश्चय ही अल्लाह हर वस्तु पर निगहबान है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 33)

विरासत में निकटतम रिश्तेदारों का विशेष हिस्सा पवित्र क़ुरआन में तीन आयतें ऐसी हैं जो बड़े सम्पूर्ण ढंग से विरासत में निकटतम सम्बंधियों के हिस्से पर रौशनी डालती हैं:

‘‘तुम्हारी संतान के बारे में अल्लाह तुम्हें निर्देश देता है कि पुरुष का हिस्सा दो स्त्रियों के बराबर है। यदि (मृतक के उत्तराधिकारी) दो से अधिक लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके का दो तिहाई दिया जाए और अगर एक ही लड़की उत्तराधिकारी हो तो आधा तरका उसका है। यदि मृतक संतान वाला हो तो उसके माता-पिता में से प्रत्येक को तरके का छठवाँ भाग मिलना चाहिए। यदि वह संतानहीन हो और माता-पिता ही उसके वारिस हों तो माता को तीसरा भाग दिया जाए। और यदि मृतक के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे भाग की हकष्दार होगी (यह सब हिस्से उस समय निकाले जाएंगे) जबकि वसीयत जो मृतक ने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उस पर हो अदा कर दिया जाए। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी संतान में से कौन लाभ की दृष्टि से तुम्हें अत्याधिक निकटतम है, यह हिस्से अल्लाह ने निधार्रित कर दिये हैं और अल्लाह सारी मस्लेहतों को जानने वाला है। और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा तुम्हें मिलेगा। यदि वह संतानहीन हों, अन्यथा संतान होने की स्थिति में तरके का एक चैथाई हिस्सा तुम्हारा है, जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और वह तुम्हारे तरके में से चैथाई की हकष्दार होंगी। यदि तुम संतानहीन हो, अन्यथा संतान होने की स्थिति में उनका हिस्सा आठवाँ होगा। इसके पश्चात कि जो वसीयत तुमने की हो पूरी कर दी जाए और वह क़र्ज़ जो तुमने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और अगर वह पुरुष अथवा स्त्री (जिसके द्वारा छोड़ी गई धन-सम्पति का वितरण होना है) संतानहीन हो और उसके माता-पिता जीवित न हों परन्तु उसका एक भाई अथवा एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन प्रत्येक को छठा भाग मिलेगा और भाई बहन एक से ज़्यादा हों तो कुछ तरके के एक तिहाई में सभी भागीदार होंगे। जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो मृतक ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। बशर्ते कि वह हानिकारक न हो। यह आदेश है अल्लाह की ओर से और अल्लाह ज्ञानवान, दृष्टिवान एवं विनम्र है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 11 से 12 )


‘‘हे नबी! लोग तुम से कलालः (वह मृतक जिसका पिता हो न पुत्र) के बारे में में फ़तवा पूछते हैं, कहो अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है। यदि कोई व्यक्ति संतानहीन मर जए और उसकी एक बहन हो तो वह उसके तरके में से आधा पाएगी और यदि बहन संतानहीन मरे तो भाई उसका उत्तराधिकारी होगा। यदि मृतक की उत्तराधिकारी दो बहनें हों तो वे तरके में दो तिहाई की हक़दार होंगी और अगर कई बहन भाई हों तो स्त्रियों का इकहरा और पुरुषों का दोहरा हिस्सा होगा तुम्हारे लिये अल्लाह आदेशों की व्याख्या करता है ताकि तुम भटकते न फिरो और अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 176)

कुछ अवसरों पर तरके में स्त्री का हिस्सा अपने समकक्ष पुरुष से अधिक होता है
अधिकांक्ष परिस्थतियों में एक स्त्री को विरासत में पुरुष की अपेक्षा आधा भाग मिलता है। किन्तु हमेशा ऐसा नहीं होता। यदि मृतक कोई सगा बुजष्ुर्ग (माता-पिता इत्यादि अथवा सगे उत्ताराधिकारी पुत्र, पुत्री आदि) न हों परन्तु उसके ऐसे सौतेले भाई-बहन हों, माता की ओर से सगे और पिता की ओर से सौतेले हों तो ऐसे दो बहन-भाई में से प्रत्येक को तरके का छठा भाग मिलेगा।

यदि मृतक के बच्चें न हों तो उसके माँ-बाप अर्थात माँ और बाप में से प्रत्येक को तरके का छठा भाग मिलेगा। कुछ स्थितियों में स्त्री को तरके में पुरुष से दोगुना हिस्सा मिलता है। यदि मृतक कोई स्त्री हो जिससे बच्चे न हों और उसका कोई भाई बहन भी न हो जबकि उसके निकटतम सम्बंधियों में उसका पति, माँ और बाप रह गए हों (ऐसी स्थिति में) उस स्त्री के पति को स्त्री के तरके में आधा भाग मिलेगा) माता को एक तिहाई, जबकि पिता को शेष का छठा भाग मिलेगा। देखिए कि इस मामले में स्त्री की माता का हिस्सा उसके पिता से दोगुना होगा।


तरके में स्त्री का सामान्य हिस्सा अपने समकक्ष पुरुष से आधा होता है

एक सामान्य नियम के रूप में यह सच है कि अधिकांश मामलों में स्त्री का तरके में हिस्सा पुरुष से आधा होता है, जैसेः

1. विरासत में पुत्री का हिस्सा पुत्र से आधा होता है।

2. यदि मृतक की संतान हो तो पत्नी को आठवाँ और पति को चैथाई हिस्सा मिलेगा।

3. यदि मृतक संतानहीन हो तो पत्नी को चैथाई और पति को आधा हिस्सा मिलेगा।

4. यदि मृतक का कोई (सगा) बुजष्ुर्ग अथवा उत्तराधिकारी न हो तो उसकी बहन को (उसके) भाई के मुकषबले में आधा हिस्सा मिलेगा।
पति को विरासत में दोगुना हिस्सा इसलिए मिलता है कि वह परिवार के भरण पोषण का ज़िम्मेदार है इस्लाम में स्त्री पर जीवनोपार्जन की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। जबकि परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती का दायित्व पुरुष पर डाला गया है। विवाह से पूर्व कन्या के रहने सहने, आवागमन, भोजन वस्त्र तथा समस्त आर्थिक आवश्यकताओं का पूरा करना उसके पिता अथवा भाई (या भाईयों) का कर्तव्य है। विवाहोपरांत स्त्री की यह समस्त आवश्यकताएं पूरी करने का दायित्व उसके पति अथवा पुत्र (पुत्रों) पर लागू होता है। अपने परिवार की समस्त आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस्लाम ने पूरी तरह पुरुष को ज़िम्मेदार ठहराया है। इस दायित्व के निर्वाह के कारण से इस्लाम में विरासत में पुरुष का हिस्सा स्त्री से दोगुना निश्चित किया गया है। उदाहरणतः यदि कोई पुरुष तरके में डेढ़ लाख रुपए छोड़ता है और उसके एक बेटी और एक बेटा है तो उसमें से 50 हज़ार बेटी को और एक लाख रुपए बेटे को मिलेंगे।

देखने में यह हिस्सा ज़्यादा लगता है परन्तु बेटे पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारी भी है जिन्हें पूरा करने के लिए (स्वाभाविक रूप से) एक लाख में से 80 हज़ार रूपए ख़र्च करने पड़ सकते हैं। अर्थात विरासत में उसका हिस्सा वास्तव में 20 हज़ार के लगभग ही रहेगा। दूसरी ओर यदि लड़की को 50 हज़ार रूपए मिले हैं लेकिन उसपर किसी प्रकार की ज़िम्मेदारी नहीं है अतः वह समस्त राशि उसके पास बची रहेेगी। आपके विचार में क्या चीज़ बेहतर है। तरके में एक लाख लेकर 80 हज़ार ख़र्च कर देना या 50 हज़ार लेकर पूरी राशि बचा लेना?

 

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गवाहों की समानता

EQUALITY OF WITNESSES

प्रश्नः क्या कारण है कि इस्लाम में दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष के समान ठहराई जाती है?

उत्तरः दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर हमेशा नहीं ठहराई जाती।

(क) जब विरासत की वसीयत का मामला हो तो दो न्यायप्रिय (योग्य) व्यक्तियों की गवाही आवश्यक है।
पवित्र क़ुरआन की कम से कम 3 आयतें हैं जिनमें गवाहों की चर्चा स्त्री अथवा पुरुष की व्याख्या के बिना की गई है। जैसेः

‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो उसके लिए साक्ष्य का नियम यह है कि तुम्हारी जमाअत (समूह) में से दो न्यायप्रिय व्यक्ति गवाह बनाए जाएं। या यदि तुम यात्रा की स्थिति में हो और वहाँ मृत्यु की मुसीबत पेश आए तो ग़ैर (बेगाने) लोगों में से दो गवाह बनाए जाएं।’’ (सूरह अल-मायदा, आयत 106)

(ख) तलाक के मामले में दो न्यायप्रिय लोगों की बात की गई हैः
‘‘फिर जब वे अपनी (इद्दत) की अवधि की समाप्ति पर पहुंचें तो या तो भले तरीके से (अपने निकाह) में रोक रखो, या भले तरीके से उनसे जुदा हो जाओ और दो ऐसे लोगों को गवाह बना लो जो तुम में न्यायप्रिय हों और (हे गवाह बनने वालो!) गवाही ठीक-ठीक और अल्लाह के लिए अदा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन 65:2)

(इस जगह इद्दत की अवधि की व्याख्या ग़ैर मुस्लिम पाठकों के लिए करना आवश्यक जान पड़ता है। इद्दत का प्रावधान इस्लामी शरीअत में इस प्रकार है कि यदि पति तलाकष् दे दे तो पत्नी 3 माह 10 दिन तक अपने घर में परिजनों की देखरेख में सीमित रहे, इस बीच यदि तलाकष् देने वाले पति से वह गर्भवती है तो उसका पता चल जाएगा। यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो इद्दत की अवधि 4 माह है। यह इस्लाम की विशेष सामाजिक व्यवस्था है। इन अवधियों में स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती।) अनुवादक



(ग) स्त्रियों के विरूद्ध बदचलनी के आरोप लगाने के सम्बन्ध में चार गवाहों का प्रावधान किया गया हैः

‘‘और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाएं और फिर 4 गवाह लेकर न आएं, उनको उसी कोड़े से मारो और उनकी गवाही न स्वीकार करो और वे स्वयं ही झूठे हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन 24:4)

पैसे के लेन-देन में दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर होती है
यह सच नहीं है कि दो गवाह स्त्रियाँ हमेशा एक पुरुष के बराबर समझी जाती हैं। यह बात केवल कुछ मामलों की हद तक ठीक है, पवित्र क़ुरआन में ऐसी लगभग पाँच आयते हैं जिनमें गवाहों की स्त्री-पुरुष के भेद के बिना चर्चा की गई है। इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन की केवल एक आयत है जो यह बताती है कि दो गवाह स्त्रियाँ एक पुरुष के बराबर हैं। यह पवित्र क़ुरआन की सबसे लम्बी आयत भी है जो व्यापारिक लेन-देन के विषय में समीक्षा करती है। इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः

‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, जब किसी निर्धारित अवधि के लिये तुम आपस में कष्र्ज़ का लेन-देन करो तो उसे लिख लिया करो। दोनों पक्षों के बीच न्याय के साथ एक व्यक्ति दस्तावेज़ लिखे, जिसे अल्लाह ने लिखने पढ़ने की योग्यता प्रदान की हो उसे लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए, वह लिखे और वह व्यक्ति इमला कराए (बोलकर लिखवाए) जिस पर हकष् आता है (अर्थात कष्र्ज़ लेने वाला) और उसे अल्लाह से, अपने रब से डरना चाहिए, जो मामला तय हुआ हो उसमें कोई कमी-बेशी न करे, लेकिर यदि कष्र्ज़ लेने वाला अज्ञान या कमज़ोर हो या इमला न करा सकता हो तो उसका वली (संरक्षक अथवा प्रतिनिधि) न्याय के साथ इमला कराए। फिर अपने पुरूषों में से दो की गवाही करा लो। ओर यदि दो पुरुष न हों तो एक पुरुष और दो स्त्रियाँ हों ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह बकष्रह आयत 282)



ध्यान रहे कि पवित्र क़ुरआन की यह आयत केवल और केवल व्यापारिक कारोबारी (रूपये पैसे के) लेन-देन से सम्बंधित है। ऐसे मामलों में यह सलाह दी गई है कि दो पक्ष आपस में लिखित अनुबंध करें और दो गवाह भी साथ लें जो दोनों (वरीयता में) पुरुष हों। यदि आप को दो पुरुष न मिल सकें तो फिर एक पुरुष और दो स्त्रियों की गवाही से भी काम चल जाएगा।

मान लें कि एक व्यक्ति किसी बीमारी के इलाज के लिए आप्रेशन करवाना चाहता है। इस इलाज की पुष्टि के लिए वह चाहेगा कि दो विशेषज्ञ सर्जनों से परामर्श करे, मान लें कि यदि उसे दूसरा सर्जन न मिले तो दूसरा चयन एक सर्जन और दो सामान्य डाक्टरों (जनरल प्रैक्टिशनर्स) की राय होगी (जो सामान्य एम.बी.बी.एस) हों।

इसी प्रकार आर्थिक लेन-देन में भी दो पुरुषों को तरजीह (प्रमुखता) दी जाती है। इस्लाम पुरुष मुसलमानों से अपेक्षा करता है कि वे अपने परिवारजनों का कफ़ील (ज़िम्मेदार) हो। और यह दायित्व पूरा करने के लिए रुपया पैसा कमाने की ज़िम्मेदारी पुरुष के कंधों पर है। अतः उसे स्त्रियों की अपेक्षा आर्थिक लेन-देन के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दूसरे साधन के रुप में एक पुरुष और दो स्त्रियों को गवाह के रुप में लिया जा सकता है ताकि यदि उन स्त्रियों में से कोई एक भूल करे तो दूसरी उसे याद दिला दे। पवित्र क़ुरआन में अरबी शब्द ‘‘तनज़ील’’ का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ ‘कन्फ़यूज़ हो जाना’ या ‘ग़लती करना’ के लिए किया जाता है। बहुत से लोगों ने इसका ग़लत अनुवाद करके इसे ‘‘भूल जाना’’ बना दिया है, अतः आर्थिक लेन-देन में (इस्लाम में) ऐसा केवल एक उदाहरण है जिसमें दो स्त्रियों की गवाही को एक पुरुष के बराबर कष्रार दिया गया है।

हत्या के मामलों में भी दो गवाह स्त्रियाँ एक पुरुष गवाह के बराबर हैंतथपि कुछ उलेमा की राय में नारी का विशेष और स्वाभाविक रवैया किसी हत्या के मामले में भी गवाही पर प्रभावित हो सकता है। ऐसी स्थिति में कोई स्त्री पुरुष की अपेक्षा अधिक भयभीत हो सकती है। अतः कुछ व्याख्याकारों की दृष्टि में हत्या के मामलों में भी दो साक्षी स्त्रियाँ एक पुरुष साक्षी के बराबर मानी जाती हैं। अन्य सभी मामलों में एक स्त्री की गवाही एक पुरुष के बराबर करार दी जाती है।



पवित्र क़ुरआन स्पष्ट रूप से बताता है कि एक गवाह स्त्री एक गवाह पुरुष के बराबर है
कुछ उलेमा ऐसे भी हैं जो यह आग्रह करते हैं कि दो गवाह स्त्रियों के एक गवाह पुरुष के बराबर होने का नियम सभी मामलों पर लागू होना चाहिए। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि पवित्र क़ुरआन ने सूरह नूर की आयत नम्बर 6 में स्पष्ट रूप से एक गवाह औरत को एक पुरुष गवाह के बराबर कष्रार दिया हैः

‘‘और जो लोग अपनी पत्नियों पर लांच्छन लगाएं, और उनके पास सिवाय स्वयं के दूसरे कोई गवाह न हों उनमें से एक व्यक्ति की गवाही (यह है कि) चार बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि वह (अपने आरोप में) सच्चा है और पाँचवी बार कहे कि उस पर अल्लाह की लानत हो, अगर वह (अपने आरोप में) झूठा हो। और स्त्री से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि यह व्यक्ति (अपने आरोप में) झूठा है, और पाँचवी बार कहे कि इस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) टूटे अगर वह (अपने आरोप में) सच्चा हो।’’ (सूरह नूर 6 से 9)

हदीस को स्वीकारने हेतु हज़रत आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की अकेली गवाही पर्याप्त है
उम्मुल मोमिनीन (समस्त मुसलमानों की माता) हज़रत आयशा रजि़. (हमारे महान पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पत्नी) के माध्यम से कम से कम 12,220 हदीसें बताई गई हैं। जिन्हें केवल हज़रत आयशा रजि़. एकमात्र गवाही के आधार पर प्रामाणिक माना जाता है।

(इस जगह यह जान लेना अनिवार्य है कि यह बात उस स्थिति में सही है कि जब कोई पवित्र हदीस (पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथन अथवा कार्य की चर्चा अर्थात हदीस के उसूलों पर खरी उतरती हो (अर्थात किसने किस प्रकार क्या बताया) के नियम के अनुसार हो, अन्यथा वह हदीस चाहे कितने ही बड़े सहाबी (वे लोग जिन्होंने सरकार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखा सुना है) के द्वारा बताई गई हो, उसे अप्रामाणिक अथवा कमज़ोर हदीसों में माना जाता है।) अनुवादक



यह इस बात का स्पष्ट सबूत है कि एक स्त्री की गवाही भी स्वीकार की जा सकती है।
अनेक उलेमा तथा इस्लामी विद्वान इस पर एकमत हैं कि नया चाँद दिखाई देने के मामले में एक (मस्लिम) स्त्री की साक्षी पर्याप्त है। कृपया ध्यान दें कि एक स्त्री की साक्षी (रमज़ान की स्थिति में) जो कि इस्लाम का एक स्तम्भ है, के लिये पर्याप्त ठहराई जा रही है। अर्थात वह मुबारक और पवित्र महीना जिसमें मुसलमान रोज़े रखते हैं, गोया रमज़ान शरीफ़ के आगमन जैसे महत्वपूर्ण मामले में स्त्री-पुरुष उसे स्वीकार कर रहे हैं। इसी प्रकार कुछ फुकहा (इस्लाम के धर्माचार्यों) का कहना है कि रमज़ान का प्रारम्भ (रमज़ान का चाँद दिखाई देने) के लिए एक गवाह, जबकि रमज़ान के समापन (ईदुलफ़ित्र का चाँद दिखाई देने) के लिये दो गवाहों का होना ज़रूरी है। यहाँ भी उन गवाहों के स्त्री अथवा पुरुष होने की कोई भी शर्त नहीं है।

कुछ मुसलमानों में स्त्री की गवाही को अधिक तरजीह दी जाती है
कुछ घटनाओं में केवल और केवल एक ही स्त्री की गवाही चाहिए होती है जबकि पुरुष को गवाह के रूप में नहीं माना जाता। जैसे स्त्रियों की विशेष समस्याओं के मामले में, अथवा किसी मृतक स्त्री के नहलाने और कफ़नाने आदि में एक स्त्री का गवाह होना आवश्यक है।

अंत में इतना बताना पर्याप्त है कि आर्थिक लेन-देन में स्त्री और पुरुष की गवाही के बीच समानता का अंतर केवल इसलिए नहीं कि इस्लाम में पुरुषों और स्त्रियों के बीच समता नहीं है, इसके विपरीत यह अंतर केवल उनकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों के कारण है। और इन्हीं कारणों से इस्लाम ने समाज में पुरूषों और स्त्रियों के लिये विभिन्न दायित्वों को सुनिश्चित किया है।

 

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